कमलनैन की कानि करति है, आवत बचन न सूधौ।।
वातनि ही उड़ि जाहिं और ज्यौं, त्यौं नाही हम काँची।
मन, बच, कर्म सोधि एकै मत, नंदनँदन रँगराँची।।
सो कछु जतन करौ पालागौ, मिटै हियै की सूल।
मुरलीधरहि आनि दिखरावहु, ओढ़े पीत दुकूल।।
इनही बातनि भए स्याम तनु, मिलवत हौ गढ़ छोलि।
‘सूर’ बचन सुनि रह्यौ ठगौसौ, बहुरि न आयौ बोलि।।3686।।