कभी दौड़ती धैर्य छोडक़र -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा माधव लीला माधुरी

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राग ललित - तीन ताल


कभी दौड़ती धैर्य छोडक़र व्याकुल हो अति भुजा पसार।
आलिंगनके लिये, न पाकर रोने लगती कर चीत्कार॥
दोनों कर कपाल पर रखकर विरहानलसे हो संतप्त।
बार-बार मूर्च्छित होती वह, चलता दीर्घ श्वास उत्तप्त॥
निद्रारहित बीतती रजनी, क्षीण धूसरित-धूलि सु‌अङ्ग।
हृदय-दाह दारुण, अति पीड़ित दंशित द्वारा विषम भुजंग॥
श्वास निदाघ, नेत्र पावस ऋतु, बदन शरद, पुलगोद्‌गम शीत।
बुद्धि शिशिर, चन्दन-तन मधु, षड्‌ऋतु, राधा-तन प्रकट पुनीत॥
कोमल कमल-सेज शीतल, हो उठी तप्त राधा-तन-स्पर्श।
हरी लता जल गयी स्पर्श पा नासा-पवन-‌अनल दुर्धर्ष॥
इसी भाँति विरह-ज्वर पीडित, हैं ब्रजकी गोपिका तमाम।
कितने तुम निष्ठुर निर्दय हो, मिथ्या धरे मधुरतम नाम !
कर सर्वस्व समर्पण तुमको, पीड़ा-निधि-निमग्र वे आज।
व्यथित न हो उनकी पीड़ासे, भोग रहे मथुरा का राज॥
जा‌ओ शीघ्र धैर्य दो मिलकर, दो तुरंत शुचि जीवन-दान।
करो बिलम्ब न एक पलक अब रक्खो त्याग-प्रेमका मान॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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