कभी तथागत बन इतराता -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

वंदना एवं प्रार्थना

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राग देस - तीन ताल

कभी ‘तथागत’ बन इतराता,
‘दुःख-दुःख’की टेर लगाता,
मनमें बँधा भोग-सुख-ताँता,
या यह छल-विस्तार नहीं है?॥-मेरे०॥-6॥
खुद अवतार कभी बन जाता,
खुलकर खूब पाँव पुजवाता,
तरह-तरह छल-छद्म बनाता,
या यह कपटाचार नहीं है?॥-मेरे०॥-7॥
रचकर ढोंग जगतको छलता,
महापाप भी मन नहिं खलता,
हरि-हित होती नहीं विकलता,
क्या यह असुराचार नहीं है ?॥-मेरे०॥8॥
देख रहे सब अन्तर्यामी!
छिपा न कुछ भी तुमसे स्वामी!
तुमसे भी छल करता कामी,
मुझ-सा और गँवार नहीं है!॥-मेरे०॥9॥
मैं अघ सहज सदा ही करता,
कभी नहीं, कैसे भी डरता,
क्षमामूर्ति तुम, दुष्कृत-हर्ता,
क्या यह कृपा अपार नहीं है?॥-मेरे०॥10॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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