कब री मिले स्याम नहिं जानौ।
तेरी सौ करि कहति सखी री, अजहूँ नहिं पहिचानौ।।
खरिक मिले, की गोरस बेचत, की अबहीं, की कालि।
नैननि अंतर होत न कबहूँ, कहति कहा री आलि।।
एकौ पल हरि होत न न्यारे, नीकै देखे नाहिं।
'सूरदास' प्रभु टरत न टारै, नैननि सदा बसाहिं।।1861।।