कब रागि फिरिहौं दीन बह्यौ ?
सुरति-सरित-भ्रम-भौर-लोल मैं, मन परि तट न लह्यौ।
बात चक्र बासना-प्रकृति मिलि, तन-तृन तुच्छ गह्यौ।
उरझयौ बिबस-कर्म निर अंतर, स्रमि सुख-सरनि चह्यौ।
बिनतीं करत डरत करुनानिंधि, नाहिंन परत रह्यौ।
सूर करनि तरु रच्यौ जु निज कर, सो कर नाहिं गह्यौ।।162।।
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