कब देखौ इहिं भाँति कन्हाई।
मोरनि के चँदवा माथे पर, काँध कामरी लकुट सुहाई।।
बासर के बीतै सुरभिन सँग, आवत एक महाछवि पाई।
कान अँगुरिया घालि निकट पुर, मोहन राग अहीरी गाई।।
क्यौ हुँ न रहत प्रान दरसन बिनु, अब कित जतन करै री माई।
'सूरदास' स्वामी नहिं आए, बदि जु गए अवध्यौऽव भराई।। 3217।।