कब के बाँधे ऊखल दाम।
कमल–नैन बाहिर करि राखे तू बैठी सुखधाम।
है निरदई, दया कछु नाहीं, लागि रही गृह काम।
देखि छुधा तैं मुख कुम्हिलानौ, अति कोमल तन स्याम।
छोरहु वेगि भई बड़ो बिरियाँ, बीति गए जाम।
तेरैं त्रास निकट नहिं आवत बोलि सकत नहिं राम।
जन-कारन भुज आपु बँधाए, बचन कियौ रिषि ताम।
ताही दिन तै प्रगट सूर प्रभु यह दामोदर नाम।।361।।