कब की मह्यौ लिये सिर डोलै।
झुठैं हीं इत उत फिरि आवै, इहाँ आनि पै बोलै।।
मुँह लौं भरी मथनियाँ तेरी तोहिं रटत भई साँझ।
जानति हौं गोरस कौ लेवा, याही बाखरि-माँझ।।
इत धौं आइ बात सुनि मेरी, कहैं बिलग जनि मानै।
तेरे घर तुहीं सयानी, और बेंचि नहिं जानै।।
भ्रमत-भ्रमत भ्रमि गई ग्वारिनी, बिकल भई बेहाल।
सूरदास प्रभु अंतरजामी, आइ मिले गोपाल।।1676।।