कबहूँ सुरभित कुसुम चुनि -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

प्रेम तत्त्व एवं गोपी प्रेम का महत्त्व

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राग पीलू - ताल कहरवा


 
कबहूँ सुरभित कुसुम चुनि, रचि सुचि सुंदर हार।
पहिरावहिं आनंद भरि पिय-गल करि मनुहार॥
बिकसित लखि सुरभित सुमन, कहि अति बिनय समेत।
प्राननाथ! चुनि ला‌इयै हार रचन के हेत॥
पुष्प चयन करि प्रानधन देहिं जबहिं भरि मोद।
लेहिं अमित आनंद सौं करि रस-भरित बिनोद॥
कबहुँ मान करि मानिनी करहिं नहीं स्वीकार।
जब पिय रचि पहिरावहीं मधुर मनोहर हार॥
देखि प्रानबल्लभ बदन, पुनि छायौ संताप।
ह्वै याकुल, तजि मान सब, जा‌इ मनावहिं आप॥
कबहूँ रचि निज कर रुचिर भोजन चारि प्रकार।
करवावहिं अति नेह तैं पिय कौं, करहिं बयार॥
कबहूँ पिय कर तैं स्वयं लेहिं ग्रास अति मोद।
जबै देहिं निजभुक्त सो भरि हिय परम प्रमोद॥
या बिधि स्याम-‌अभिन्न तन स्यामा सँग नित स्याम।
आलंबन रस मधुर के, लीला करहिं ललाम॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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