कबहुं पिय हरषि हिरदै लगावै।
कबहुँ लै-लै तान नागरी सुधर अति, सुधर नंद-सुवन कौ मन रिझावै।।
कबहुँ चुंबन देति, आकरषि जिय लेतिं, गिरति बिनु चेत, बस-हेत अपनैं।
मिलति भुज कंठ दै, रहति अँग लटकि कै, जात दुख दूरि ह्वै झझकि सपनैं।।
लेति गहि कुचन बिच, देति अधरनि अमृत, एक कर चिबुक इक सीस धारै।
सूर की स्वामिनी, स्याम सनमुख होइ, निरखि मुख नैन इक टक निहारै।।1061।।