कबरी शिथिल हुई सबकी, तब गिरे प्रफुल्ल कुसुम-सभार।
मधु-लोलुप मधुकर मँड़राते, सेवा करते कर गुजार॥
व्रज-बालाओं की मृदु वाणी स्खलित हो रही है उस काल।
छाया मद प्रेमामृत-मधु का, रही न कुछ भी सार-सँभार॥
चीर-वसन नीवी से विश्लथ, उसका प्रान्तभाग सुन्दर।
करता अर्चि-नितब प्रकाशित, लोल काचि उल्लसित अमर॥
खसे जा रहे ललित पदाबुजसे मणिमय नूपुर भूपर।
टूट-टूटकर बिखर रहे हैं, फैल रहे सब इधर-उधर॥
निकल रहा मुख से सी-सी स्वर, किपत अधर सुपल्लव-लाल।
श्रवणों में मणि-कुण्डल शोभित, छायी सुधा-रश्मि सब काल॥
अलसाये लोचन दोनों अति शोभित नील-सरोरुह-सम।
सुन्दर पक्ष्म-विभूषित मुकुलाकार दीर्घ अतिशय अनुपम॥
श्वास-समीरण शुचि सुगन्ध से अधर-सुपल्लव हैं अलान।
अरुण-वर्ण धन, मोहन के वे नित नूतन आनन्द-निधान॥
प्रियतम-प्रिय पूजोपहारसे उनके कर-पङङ्कज कोमल।
सदा सुशोभित रहते, ऐसा अतुलित वह गोपी-मण्डल॥
अपने असित विशाल विलोल लोचनों को ले व्रज-बाला।
उन्हें बनाकर नील नीरजों की मानो सुन्दर माला॥
पूज रहीं हरि के सब अङ्गों को, यों सेवा करतीं नित्य।
छूट गये उनसे जग के सब विषय दुःखमय और अनित्य॥
नानाविध विलास के आश्रय हैं प्रेमास्पद श्रीभगवान।
परम प्रेयसी व्रज-सुन्दरियों के लोचन हैं मधुप-समान॥
प्रणय-सुधारस-पूर्ण मनोमोहक मधुकर वे चारों ओर।
उड़-उडक़र मनहर मुख-पङ्कज-विगलित रस मधु-पान-विभोर॥
आस्वादन करते, पीते रहते, पाते आनन्द अपार।
मानो नेत्ररूप मधुपों की माला हरिने की स्वीकार॥
परम प्रेयसी व्रज-सुन्दरियाँ, परम प्रेम-आश्रय भगवान।
निर्मल कामरहित मनसे यह करिये अतिशय पावन ध्यान॥