कछु कैहै कै मौनहिं रैहै -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग कान्हरौ


कछु कैहै कै मौनहिं रैहै।
कहा कहति हौं तोसौं तब तै, ताकौ ज्वाब कछू मोहिं दैहै।।
सुनिहैं मातु-पिता लोगनि-मुख, यह लीला उनि सबै जनैहै।
प्रातहिं तैं आई दधि बेंचन, घरहिं आजु जैहै कि न जेहै।।
मेरौ कह्यौ मानिहै नाहीं, ऐसहिं भ्रमि भ्रमि द्योस बितैहै।
मुख तौ खोलि सुनौं तरी बानी, भली बुरी कैसी धौं कैहै।।
गुप्त प्रीति काहे न करि हरि सौं, प्रगट कियै कछु नफा बढ़ैहै।
सूर स्या‍म सौं प्रीति निरंतर, लाज कियैं अंतर कछु ह्वै है।।1650।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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