ऐसौ जिय न धरौ रघुराइ ।
तुम सौ प्रभु तजि मों सी दासी, अनत न कहूँ समाइ।
तुम्हरौ रूप अनूप भानु ज्यौं, जब नैननि भरि देखौं।
ता छिन-हृदय-कमल-प्रफुलित ह्वै, जनम सफल करि लेखौं।
तुम्हरैं चरन-कमल सुख-सागर, यह व्रत हौं प्रतिपलिहौं।
सूर सकल सुख छाँडि आपनौ, बन-विपदा-संग चलिहों॥35॥