ऐसौ कोउ नाहिंनै सजनी जो मोहनहिं मिलावै।
बारक बहुरि नंदनंदन कौ, जो ह्याँ लौ लै आवै।।
पाइनि परि बिनती करि मेरी, यह सब दसा सुनावै।
निसि निकुंज सुख केलि परम रुचि, रास की सुरति करावै।।
और कौनहू बात की सकुच न, किहुँ बिधि की उपजावै।
पुनि पुनि ‘सूर’ यहै कहै हरि सौ, लोचन जरत बुझावै।। 3215।।