ऐसै और कौन पहिचानै।
सुनु सुंदरि वा दीनबंधु बिन, कौन मित्रई मानै।।
कहँ हम कृपन, कुचील, कुदरसन, कहँ जदुनाथ गुसाईं।
भेटे हृदय लगाइ अंक-भरि, उठि, अग्रज की नाईं।।
निज आसन बैठारि परम रुचि, निज कर चरन पखारे।
पूछी कुसल स्यामसुदरघन सब संकोच निवारे।।
लीन्हे छोरि चीर तै चाउर, ग़हि मुख मैं मेले।
पूरब कथा सुनाइ ‘सूर’ प्रभु, गुरु गृह बसे अकेले।। 4241।।