(ऐसे) ब्रजपति कौ अति बिचित्र हिंडोरन भावै जू।
ब्रजललना स्यामा सँग देखन कौ आवै जू।।
कल्पद्रुम के खंभ रोपे मलय गिरि की पाटि।
भँवरा मरुवा कृष्नऽगरु के कनक बहु बिधि काँटि।।
डाँड़ि बनई परिजातक कनक पटुली बानि।
बिस्वकर्मा रच्यौ पचि पचि रत्न नाना आनि।।
आनि रत्न सु रच्यौ पचि पचि अति अनूपम भाँति।
जच्छ किन्नर देव नर मिलि देखि मोहै काँति।।
उपमा कौ त्रैलोक नाहिं जु देहुँ पटतर डाँटि।
कल्पद्रुम के खंभ रोपे मलय गिरि की पाटि।।
बृंदावन कालिंदी कै तट हरित सोभित भूमि।
बिरध लता द्रुम कुसुम मुकुलित रहे झुकि झुकि झूमि।।
तहँ लालमुनियाँ-झुंड बैठे मत्त अलि-कुल गुंज।
हंस-चंक्व-चकोर-चातक कीर-कोकिल-गुंज।।
कुंज कुंज तहँ मोर निरतत करत कुलाहल नाद।
हारिल परेवा भृंग पिकऽरु कपोत दुजकुल बृंद।।
बोलही गहगह मधुर बानी गगन गरजै घूमि।
बृंदावन कालिंदी कै तट हरित सोभित भूमि।। 2 ।।