ऐसी ही कारेन की रीति।
मन दै सरबस हरत परायो करत कपट की प्रीती॥
ज्यौं षट्पद अंबुज के दल मैं, बरसत निसा रति मानि।
दिनकर उदय अनत उड़ि बैट अत:, फिरि न करत पहिचानि॥
भवन भुजंग पटारी पाल्यौ, जौसें जननी तात।
कुल करतूति तजत नहिं कबहूँ, सहजहि डसि भजि जात।
कोकिल, काग, कुरंग, स्याम घन, हमहिं न देखे भावत।
'सूरदास' अनुहारि स्याम की, फिरि फिरि सुरति करावत।।3756।।