ऐसी कब करिहौ गोपाल -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग कान्‍हरौ




 
ऐसी कब करिहौ गोपाल।
मनसा-नाथ, मनोरथ-दाता, हौ प्रभु दीनदयाल।
चरननि चित्त निरंतर अनुरत, रसना चरित-रसाल।
लोचन सजल, प्रेम-पुलकित तन, गर अंचल, कर माल।
लहिं बिधि लखत, झुकाइ रहै जम अपनैं हौं भय भाल।
सूर सुजस-रागी न डरत मन, सुनि जातना कराल।।189।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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