एक जाम नृप कौ निसि, जुग तै भइ भारी।
आपुनहूँ जाग्यो, सँग जागी सब नारी।।
कबहुँ उठत, बैठत पुनि, कबहुँ सेज सोवै।
कबहुँ अजिर ठाढ़ो ह्वै, ऐसै निसि खोवै।।
बार बार जोतिक सौ, निसि घरी बुझावै।
एक जाइ पहुँचै नही, अरु एक पठावै।।
जोतिक जिय त्रास परयौ, कहा प्रात करिहै।
'सूर' क्रोध भरयौ नृपति, काकै सिर परिहै।।2937।।