एक गाउँ कै बास सखी हौं, कैसैं धीर धरौं।
लोचन मधुप अटक नहिं मानत, जद्यपि जतन करौं।।
वै इहिं मग नित प्रति आबत हैं, हौं दधि लै निकरौं।
पुलकित रोम-रोम, गदगद सुर, आनंद उमँग भरौं।।
पल अंतर चलि जात, कलप बर बिरहा अनल जरौं।
सूर सकुच कुल-कानि कहाँ लगि, आरज-पथहिं डरौं।।1665।।