(ऊधौ) हरि बिनु ब्रज रिपु बहुरि जिए।
जे हमरे देखत नँदनंदन, हति हति ते सु दूरि किए।।
निसि कौ रूप बकी बनि आवति, अति भय करति सु कंप हिए।
तापहिं तै तन प्रान हमारे, रविहूँ छिनक छँड़ाइ लिए।।
उर ऊँचे उच्छ्वास तृनावर्त, तिहिं सुख सकल उड़ाइ दिए।
कोटिक काली सम कालिंदी परसत सलिल न जात पिए।।
बन बक रूप अघासुर सम गृह, कतहूँ तौ न चितै सकिए।
केसी कठिन करम कैसौ बिनु, काकौ ‘सूर’ सरन तकिए।।3620।।