ऊधौ हरि के औरै ढंग।
जहँ न अनँग रस रूप नेह कौ, तहँ दइ गति जु अनंग।।
जो अनँग बपु, असुर दासिका, सो भइ नूतन अंग।
आपु विषमता तजि दोऊ सम, बानक ललित त्रिभंग।।
मनौ मरीचि देखि तन भूल्यौ, भू पथ सुरभि कुरंग।
तजि कुसुमाकर कंटक बन भ्रमि, नहि कीन्हौ भ्रूभंग।।
कनक बेलि सत दल सिर मंडित, दृढ़ तर लता लवंग।
स्यामासदन बिसारि भजे पुर, चंचल नारि पलंग।।
ते सुख बहुत बहुत पावैंगे, जे करिहै अँग संग।
काके होहिं जो नहिं गोकुल के, ‘सूरज’ प्रभु श्रीरंग।।3947।।