ऊधौ सुधि नाही या तन की।
जाइ कहौ तुम कित हो भूले, हम अब भई वन वन की।।
इक बन ढँढि सकल बन ढूँढे, बन बेली मधुवन की।
हारि परी दाबन ढूँढत, सुधि न मिली मोहन की।।
किए बिचार उपचार न लागत, कठिन बिथा भइ मन की।
‘सूरदास’ कोउ कहै स्याम सौ, सुरति करै गोपिनि की।।4045।।