ऊधौ तुम हौ निकट के वासी।
यह निरगुन लै तिनहिं सुनावहु, जे मुड़िया बसै कासी।।
मुरलीधरन सकल अंग सुंदर, रूपसिंधु की रासौ।
जोग बटोरे लिए फिरत हौ, ब्रजवासिन की फाँसी।।
राजकुमार भलै हम जाने, घर मैं कस की दासी।
'सूरदास' जदुकुलहिं लजावत, ब्रज मैं होति है हाँसी।।3668।।