ऊधौ तुम हौ अति बड़ भागी।
अपरस रहत सनेह तगादै, नाहिन मन अनुरागी।।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौ जल माहँ तेल की गागरि, बूद न ताकौ लागी।।
प्रीति नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
'सूरदास' अबला हम भोरी, गुर चीटी ज्यौ पागी।।3958।।