ऊधौ तुम यह मति लै आए।
इक हम जरतिं खिझावन आए, मानौ सिखै पठाए।।
तुम उनके वै नाथ तुम्हारे, प्रान एक इक सारे।
मित्र के मित्र सजन के सज्जन, तातै कहतिं पुकारे।।
रे सुनि मूढ़ जरति अबलनि कौ, पर दुख तू नहिं जानै।
निपट गँवार होइ जो मूरख, सो तेरी बातै मानै।।
हम रुचि करी ‘सूर’ के प्रभु कौ, दूजौ मन न सुहाइ।
उलटि जाहु अपनै पुर माही, बादिहिं करत लराइ।।3801।।