ऊधौ तुम यह निहचे जानौ।
मन, बच, क्रम मैं तुमहि पठावत, ब्रज कौ तुरत पलानौ।।
पूरन ब्रह्म अकल अविनासी, ताके तुम हौ ज्ञाता।
रेख न रूप जाति कुल नाही, जाके नहिं पितु माता।।
यह मत दै गोपिनि कौं आवहु, बिरह नदी मैं भासत।
‘सूर’ तुरत तुम जाइ कहौ यह, ब्रह्म बिना नहिं आसत।। 3426।।