ऊधौ जोग जोग हम नाही।
अबला सारज्ञान कह जानै, कैसै ध्यान धराही।।
तेई मूँदन नैन कहत हौ, हरि मूरति जिन माही।
ऐसी कथा कपट की मधुकर, हमतै सुनी न जाही।।
स्रवन चीरि सिर जटा बँधावहु, ये दुख कौन समाही।
चंदन तजि अँग भस्म बतावत, विरह-अनल अति दाही।।
जोगी भ्रमत जाहि लगि भूले, सो तौ है अप माही।
‘सूर’ स्याम तै न्यारी न पल छिन, ज्यौ घट तै परछाही।।3924।।