( ऊधौ ) कैसै जीवै कमलनयन बिनु।
तब तौ पलक लगत दुख पावत, अब जु बरष एकहु छिनु।।
ज्यौ ऊजर खेरे की पुतरी, को पूजै को मानै।
त्यौ हम बिनु गोपाल भई ऊधौ, कठिन पीर को जानै।।
तुम तै होइ करौ सो ऊधौ, हम अबला बलहीन।
‘सूर’ बदन देखै हम जीवै, ज्यौ जल पाऐं मीन।।4044।।