ऊधौ कहौ हमैं क्यौ बिसरै, श्री गुपाल सुखदाई।
सुंदर बदन नैन देखे बिनु, निसि दिन कछु न सुहाई।।
अति सुरूप सोभा की सीवा, अखिल लोक चतुराई।
मृदु मुस्कान रोम आनंदत, कह लौ करै बडाई।।
जिन हम काज धरयौ कर गिरिवर, बहुत विपति विसराई।
सोइ इहिं देह हमारैं मन वसि, ‘सूरदास’ वलि जाई।।3680।।