ऊधौ एक मेरी बात।
बूझियौ हरवाइ हरि सौ, प्रथम कहि कुसलात।।
तुम जु यह उपदेस पठयौ, आनि जो मन ज्ञान।
सत्यहू सब बचन झूठौ, मानियै मन न्यान।।
और ब्रज कहि दूसरौ हू, सुन्यौ कहँ बलबीर।
जाहि बरजन ह्याँ पठायौ, करि हमारी पीर।।
आपु जब तै गए मथुरा, कहत तुमसौ लोग।
सहज ही ता दिवस तै, हम भूलियौ भव भोग।।
प्रगट पति पितु मातु प्रिय जन, प्रान तुव आधीन।
ज्यौ चकोरहिं सँग चकोरी, चित्त चदहिं लीन।।
रूप रस न सुगंध परसन, रुचि न इद्रिनि आन।
होत हौस न ताहि विष की, कियौ जिन मधु पान।।
ह्वै गयौ मन आपुही बस, गनत गुन गन ईस।।
ज्ञान है कि अज्ञान अलि, तृन तोरि दीजै सीस।।
बहुत कहिये कहा केसौ राय, परम प्रबीन।
‘सूर’ सुमत न छाड़िहै जहँ, जियत जल बिनु मीन।। 199 ।।