ऊधौ इतनी कहियौ बात।
मदनगुपाल बिना या व्रज मै, होन लगे उतपात।।
तृनावर्त, वक, वकी, अघासुर, धैनुक, फिरि फिरि जात।
व्योम, प्रलंब, कस केसी इत, करत जियनि की घात।।
काली काल रूप दिखियत है, जमुना जलहि अन्हात।
वरुन फाँस फाँस्यौ चाहत है, सुनियत अति मुरझात।।
इंद्र आपने परिहँस कारन, बार बार अनखात।
गोपी, गाइ, गोप, गोसुत सब, थर थर काँपत गात।।
अंचल फारति जननि जसोदा, पाग लिए कर तात।
लागौ बेगि गुहारि ‘सूर’ प्रभु, गोकुल बैरिनि घात।।4069।।