ऊधौ इतनी कहियौ जाइ।
अति कृस गात भई ये तुम बिनु, परम दुखारी गाइ।।
जल समूह बरषति दोउ अँखियाँ, हँकति लीन्है नाउँ।
जहाँ जहाँ गो दोहन कीन्हो, सूँघति सोई ठाउँ।।
परतिं पछार खाइ छिन ही छिन, अति आतुर ह्वै दीन।
मानहु ‘सूर’ काढि डारी है, वारि मध्य तै मीन।।4070।।