ऊधौ! तुम ते कहौं का गोपी-प्रेम-महत्त्व।
जिन जान्यौ केवल परम सुद्ध प्रेम कौ तत्त्व॥
मो में ही अनुराग सुचि ममता अमल अनन्य।
सेवत सरबस सौंपि सो मोय गोपिका धन्य॥
मो मन नित्य मनस्विनी, प्रानवती मम प्रान।
मेरे ही हित कर्म सब करत बिगत अभिमान॥
असन-बसन तन-धन सकल धारत मम सुख-काज।
निज सुख-इच्छारहित नित तजि सब विषय-समाज॥
राग न नैकहु कितहुँ कछु अग-जग ममताहीन।
इह-पर-भोग-बिराग नित सहज नेह-रस-लीन॥
मम महिमा, सेवा, परम श्रद्धा, मन की बात।
केवल गोपी-जनन कौं सबै तत्त्वतः जात॥
तिन में सब की आतमा सब की परमाधार।
महाभावमयि राधिका रस-पर-पारावार॥
तिनके मन-बच-कर्ममें उमगत नित रस-सिंधु।
धन्य भयौ मैं पाय कछु तिन तें मधु-रस-बिंदु॥
परम त्यागमय प्रेम कौ सुख-सागर लहरात।
वा सुख चाखन कौं सदा मम मन अति ललचात॥
बनौं कबौं जो राधिका मैं लै तिन कौ भाव।
कृष्न मानि सेवौं तिनहिं तब पूरै मन-चाव॥
जाउ सखा, धनि होउ, लै सिर तिन चरनन-धूरि।
दरसन करि दृग-फल लहौ जो मम जीवन-मूरि॥