ऊधो चलौ बिदुर कै जइयै।
दुरजोधन कै कौंन काज जहँ आदर-भाव न पइयै।
गुरुमुख नहीं बड़े अभिमानी, कापै सेव करइयै।
टटी छानि, मेघ जल बरसै, टूटौ पलँग बिछइयै।
चरन धोइ चरनोदक लीन्हौं, तिया कहै प्रभु अइयै।
सकुचत फिरत जो बदन छिपाए, भोजन कहा मँगइयै।
तुम तो तीनि लोक के ठाकुर, तुम तैं कहा दुरइयै।
हम तौ प्रेम-प्रीति के गाहक, भाजी-साक छकइयै।
हँसि-हँसि खात, कहत मुख महिमा प्रेम-प्रीति अधिकइयै।
सूरदास-प्रभु भक्तनि कैं बस, भक्तनि प्रेम बढ़इयै।।239।।