उबरयौ स्याम, महरि बड़भागी।
बहुत दूरि तैं आइ परयौ धर, धौं कहुँ चोट न लागी।
राग लेउँ बलि जाउँ कन्हैया, यह कहि कंठ लगाइ।
तुमहीे हौ ब्रज के जीवन-धन देखत नैन सिराइ।
भली नहीं यह प्रकृति जसोदा, छाँड़ि अकेली जाति।
गृह कौ काज इनहुँ तैं प्यारौ, नैकहुँ नाहिं डराति।
भली भई अबकैं हरि बाँवे, अब तौ सुरति सम्हारि।
सूरदास खिझि कहति ग्वालिनि, मन मैं महरि बिचारि।।79।।