उनही कौ मन राखै काम।
ह्याँ तुम जौ आए वा नाही, बात सुनत हौ नाही स्याम।।
देखौ अंग-अंग-प्रति सोभा, मै तौ भूली हौ इहिं रूप।
धनि पिय बने, बनी वेऊ है, एक एक तै रूप अनूप।।
सो छवि मोहिं दिखावन आए, माया करी बहुत हरि आजु।
'सूरदास' प्रभु रसिकसिरोमनि, वेउ रसकिनी बन्यौ समाजु।।2540।।