उधौ इतने मोहिं सतावत।
कारी घटा देखि बादर की, दामिनि चमकि डरावत।।
हेम-सुता-पति कौ रिपु व्यापै, दधिसुत रथ न चलावत।
अंबू खंडन सब्द सुनत ही, चित चकृत उठि धावत।।
कंचनपुरपति कौ जो भ्राता, ता प्रिय बलहिं न आवत।
संभूसुत कौ जो वाहन है, कुहुकै असल सलावत।।
जद्यपि भूषन अंग वनावतिं, सो भुजंग ह्वै धावत।
'सूरदास' विरहिनि अति ब्याकुल, खगपति चढ़ि किन आवत।।3623।।