उद्धव ! तुम मुझको किसका यह सुना रहे कैसा संदेश ?
भुला रहे क्यों मिथ्या कहकर? प्रियतम कहाँ गये परदेश ?
देखे बिना मुझे, पलभर भी कभी नहीं वे रह पाते !
क्षणभर में व्याकुल हो जाते, कैसे छोड़ चले जाते ?
मैं भी उनसे ही जीवित हूँ, वे ही हैं प्राणों के प्राण।
छोड़ चले जाते तो कैसे तन में रह पाते ये प्राण ?
देखो-वह देखो, कैसे मृदु-मृदु मुसकाते नन्द-किशोर।
खड़े कदब-मूल, अपलक वे झाँक रहे हैं मेरी ओर॥
देखो, कैसे मत्त हो रहे, मेरे मुखको पंकज मान।
प्राण-प्रियतमके दृग-मधुकर मधुर कर रहे हैं रस-पान॥
भ्रुकुटि चलाकर, दृग मटकाकर मुझे कर रहे वे संकेत।
अति आतुर एकान्त कुज में बुला रहे हैं प्राण-निकेत॥
कैसे तुम भौंचक-से होकर देख रहे कदम्ब की ओर ?
क्या तुम नहीं देख पाते ? या देख रहे हो प्रेम-विभोर ?
हैं ! यह क्या? सहसा वे कैसे, कहाँ हो गये अन्तर्धान ?
हाय क्यों नहीं दीख रहे मुझको मन-मोहन मोद-निधान ?
आँखमिचौनी लगे खेलने क्या वे लीलामय फिर आज ?
दिखा दिया मैंने तुमको, क्या इससे उन्हें आ गयी लाज ?
नहीं, नहीं ! तब क्या वे चले गये सचमुच ही मुझको छोड़ ?
मुझे बनाकर अमित अभागिनि, हाय ! गये मुझसे मुख मोड़ ?