उत्तम सफल एकादसि आई 1 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल
वरुण से नंद को छुड़ाना


भीतर लै राखे नंद नीकै। अंत:पुर महलनि रानी कैं।।
रानी सबनि नंद कौ देख्यौ। धन्य जन्म अपनो करि लेख्यौ।।
जिनके सबनि नंद कौ देख्यौ‍। धन्य‍ जन्म अपनौ करि लेख्यौ।।
जिनके सुत त्रलोक-गुसाईं। सुर-नर-मुनि सबही के साइ।।
वरुन कह्यौ मन हरष बढ़ाए। बड़ी बात भई नंदहि ल्याए।।
अंतरजामी जानत वाता। अब आवत ह्वैहैं जग त्राता।।
जाकौ ब्रह्मा अंत न पायौ। जाकौं मुनि जन ध्यान लगायौ।।
जाकौं निगम नेति गावत हैं। जाकौं वन मुनिवर ध्या‍वत हैं।।
जाकौं ध्यान धरै सिव जोगी। जाकौ सेवत सुरपति भोगी।।
जो प्रभु है जल-थल सब ब्यापक। जो हैं कंस-दर्प के दापक।।
गुन-अतीत अविगत, अबिनासी। सोइ ब्रज मैं खेलत सुख-रासी।।
धनि मेरे भृत नंदहि लयाए। करुनामय अब आवत धाए।।
महरि कही तब ग्याल सगर कौं। बड़ी बार भइ नँद महर कौं।।
गए ग्वाल तब नंद बुलावन। देख्यौ जाइ जमुन-जल पावन।।
जहँ-तहँ ढूंढ़ि ग्वाल घर आए। धोती अरु भारी वै ल्याए।।
मन मन सोच करत अकुलाए। कही जसोदहि नंद न पाए।।
धोती भारी तट मैं पाई। सुनत महरि-मुख गयौ झुराई।।
निसा अकेले आजु सिधाए। काहूँ धौं जलचर खाए।।
यह कहि जसुमति रोइ पुकारयौ। मो बरजत कत रैनि सिधारयौ।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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