उठता नाच प्रेम-सागर तब बढ़ जाती रस-राशि अपार।
विस्मृत हो जाता तब सब कुछ कौन, कहाँ, शरीर-संसार॥
इसी समय सहसा फिर मनमोहन हो जाते अन्तर्धान।
जल उठतीं फिर वही विरहकी ज्वाला, अति मन होता म्लान॥
फिर मनमें आती-मैं क्यों हूँ जलती उनकी करके याद ?
नहीं योग्य मैं उनके किंचित् दोषमयी नित भरी-विषाद॥
रूप-शील-गुणहीन कहाँ मैं, कहाँ रूप-गुण-शील-निधान !
कहाँ प्रेम-सागर सुविज वे, कहाँ प्रेम-विरहित अज्ञान॥
उद्धव ! इसी दुःख-सुख-सागर में मैं रहती नित्य निमग्र !
इतना है संतोष, बृत्ति अविरत रहती उनमें संलग्र॥
सुनते ही उद्धव के अन्तरमें उमड़ा अतिशय अनुराग।
पड़े मुग्ध हो श्रीराधा-चरणोंमें तुरत चेतना त्याग॥