इहिं विधि पावस सदा हमारै।
पूरब पवन स्वास उर ऊरध, आनि मिले इकठारै।।
बादर स्याम सेत नैननि मैं, बरषि आँसु जल ढारै।
अरुन प्रकास पलक दुति दामिनि, गरजनि नाम पियारै।।
चातक दादुर मोर प्रकट ब्रज, बसत निरतर धारैं।
ऊधव ये तब तै अटके ब्रज, स्याम रहे हित टारै।।
कहियै काहि सुनै कत कोऊ, या ब्रज के ब्यौहारै।
तुमही सौं कहि कहि पछितानी, ‘सूर’ विरह के धारैं।।3942।।