इसके अधरों पर छा जाये भीतर से निकली मुसकान।
हो जाऊँ मैं सुखी देखकर विकसित प्रिय विधु-वदन समान॥
कभी न हो मुझसे कुछ ऐसी भूल, भूलकर भी पल एक।
सदा बताता रहे मुझे प्रियका सुख, जाग्रत रहे विवेक॥
करूँ सदा प्रिय कार्य, रखूँ मैं उसकी प्यारी सारी टेक।
होता रहे सदा शुचि उस पर आनन्दामृत का अभिषेक॥
तुम भी यही चाहते हो, करते हो तुम भी यही प्रयास।
भली तुम्हारी विमल भावना, शुद्ध तुम्हारा अति अभिलाष॥
पर मनकी रुचि, स्थिति होती सब पृथक्-पृथक् होता विश्वास।
इससे मेल न खाता सबमें होता पृथक्-पृथक्-सा भास॥
पर जो नित्य देख पाता सर्वत्र सदा लीला-विस्तार।
होता उसे, देख लीलामय की लीला, अति, हर्ष अपार॥
सभी अवस्थाओं, स्थितियों में वही खेलता नित अविकार।
देख उसे, नत-जीवन, करता रहूँ नित्य उसका सत्कार॥