इन नैननि सौ री सखी मै मानी हारि।
साँटसकुच नहिं मानही, बहु बारनि मारि।।
डरत नही फिरि फिरि अरै, हरि-दरसन-काज।
आपु गए मोहूँ कहै, चलि मिलि ब्रजराज।।
घूँघट घर मैं नहि रहै, करि रही बुझाइ।
पलक कपाट बिदारि कै, उठि चले पराइ।।
तब तै मौन भई रही, देखत ये रंग।
'सूरज' प्रभु जहँ जहँ रहै, तहँ तहँ ये संग।।2387।।