इतनी दूरि गोपालहिं माई -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग


इतनी दूरि गोपालहिं गाई, नहि कबहू मिलि आई।
कहिऐ कहा, दोष किहिं दीजै, अपनी ही जड़ताई।।
सोवत मैं सपनै सुनि सजनी, ज्यौ निधनी निधि पाई।
गनतहिं आनि अचानक कोकिल, उपवन बोलि जगाई।।
जौ जागी तौ कह उठि देखौ, बिकल भई अधिकाई।
नूतन किसलै कुसुम दसहु दिसि, मधुकर मदन दुहाई।।
बिछुरत तन न तज्यौ तेही छन, संग न गई हठि माई।
समुझि न परी ‘सूर’ तिहिं अवसर, कीन्ही प्रीति हँसाई।। 3259।।

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