इक कौं आनि ठेलत पाँच।
करुनामय, कित जाउँ कृपानिधि, बहुत नचायौ नाच।
सबै कूर मोसौं ऋन चाहत, कहौ कहा तिन दीजै !
बिना दियैं दुख देत दयानिधि, कहौ कौन बिधि कीजै !
थाती प्रान तुम्हारी मोपै जनमत हीं जो दीन्ही।
सो मैं बाटि दई पाँचनि कौं, देह जमानति लीन्ही।
मन राखैं तुम्हरे चरननि पै, नित नित जो दुख पावैं।
मुकरि जाइ, कै दीन बचन सुनि, जमपुर बाँधि पठावैं।
लेखौ करत लाखही निकसत, को गनि सकत अपार।
हीरा जनम दियौ प्रभु हमकौं, दीन्ही बात सम्हार।
गीता-बेद-भागवत मैं प्रभु, यौं बोले हैं आथ।
जन के निपट निकट सुनियत हैं, सदा रहत हौ साथ।
जब जब अधम करी अधमाई, तब तब टोक्यौ नाथ।
अब तौ मोहिं बोलि नहिं आवै, तुमसौ क्यौं कहौं नाथ।
हौं तौ जाति गँवार, पतित हौं, निपट निलज, खिसियानौ।
तब हँसि कह्यौ सूर प्रभु सो तो, मोहूँ सुन्यौ घटानौ।।196।।
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