आपु कहावति बड़ी सयानी।
तब तू कहति सबनि सौं हँसि-हँसि, अब तौ प्रगटहि भई दिवानी।।
कहाँ गई चतुराई तेरी, अतिहीं काहैं भई अयानी।
गुप्त प्रीति परगट तैं कीन्हीं, सुनति कछू घर-घर की बानी?।।
एकहिं बेर तजी मरजादा, मातु-पिता गुरुजनहिं भुलानी।
सुनहु सूर ऐसी न बूझियै, सीस धरे मटुकी बिततानी।।1648।।