आपुन तरि तरि औरनि तारत।
अस्म अचेत प्रगट पानी मैं, वनचर लै-लै डारत।
इहिं विधि उपलै तरत पात ज्यौं, जदपि सैल अति भारत।
बुद्धि न सकति सेतु रचना रचि, राम-प्रताप बिचारत।
जिहिं जल तृन, पसु, दारू बूडि़ अपनै सँग औरनि पारत।
तिहिं जल गाजत महावीर सब, तरत आँखि नहिं मारत।
रघुपति-चरन-प्रताप प्रगट सुर, व्योम बिमाननि गावत।
सूरदास क्यौं बूड़त कलऊ, नाम न वूड़न पावत॥123॥