आजु नंद के द्वारैं भीर।
इक आवत इक जात विदा ह्वै, इक ठाढ़े मंदिर कैं तीर।
कोउ केसरि कौ तिलक बनावति, कोउ पहिरति कंचुकी सरीर।
एकनि कौं गौ-दान समपंत, एकनि कौं पहिरावत चीर।
एकनि कौं भूषन पाटंबर, एकनि कौं जू देत नग हीर।
एकनि कौं पुहुपनि की माला, एकनि कौं चंदन घसि नीर।
एकनि माथैं दूब-रोचना, एकनि कौं बोधति दै धीर।
सूरदास धनि स्याम सनेही, धन्य जसोदा पुन्य-सुरीर॥25॥