आजु गई हौ नंद भवन मैं -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग आसावरी



आजु गई हौं नंद भवन मैं, कहा कहौं गृह चैन री।
चहूँ ओर चतुरंग लच्छमो, कोटिक दुहियत घैत री।
घूमि रहीं जित तित दधि मयनी, सुरत मेघ-धुनि लाजै री।
बरनौं कहा सदन की सोभा, बैकुंठहु तैं राजै री।
बोलि लई नव बधू जानि जहँ खेलत कुँवर कन्हाई री।
मुख देखत मोहिनी सी लागी, रूप न बरन्यौ जाई री।
लटकन लटकि रहे भ्रू ऊपर, रँग रँग मनि-गन पोहे री।
मानहुं गुरु-सनि-सुक्र एक ह्वै, लाल भाल पर सोहे री।
गोरोचन कौ तिलक, निकटहीं काजर-बिंदुका लाग्यौ री।
मनौ कमल कौ पो पराग, अलि-सावक सोइ न जाग्यौ री।
बिधु-आनन पर दीरब लोचन, नासा लटकत माती री।
मानौ सोम संग करि लीने, जानि आपने गोती री।
सीपज-माल स्याम-उर सोहै, बिच बध-नहँ छबि पावै री।
मानौ द्वैज ससि नखत सहित है उपमा कहत न आवै री।
सोभा-सिंधु अंग अंगनि प्रति, बरनत नाहिंन ओर री।
जित देखौं मन भयौ तितहिं कौ, मनौ भरे कौ चोर री।
बरनों कहा अंग-अंग-सोभा, भरी भाव जल-रास री।
लाल गोपाल बाल-छबि बरनत, कबि-कुल करिहै हास री।
जो मेरी अँखियनि रसना होती कहती रूप बनाइ री।
चिरजीवहु जसुदा कौ ढोटा, सूरदास बलि जाइ री।।139।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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